इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में उत्तर प्रदेश सरकार को प्राथमिकियों और जब्त किए गए माल के मेमो सहित पुलिस रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख करने की व्यवस्था तत्काल प्रभाव से बंद करने का निर्देश दिया है।

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शराब तस्करी से जुड़े एक आपराधिक मामले में सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर ने यह निर्देश पारित किया।
अदालत ने 16 सितंबर को पारित अपने निर्णय में इस व्यवस्था को “कानूनी भ्रांति” और “पहचान की प्रोफाइलिंग” करार दिया जो संवैधानिक नैतिकता को कमजोर करती है और संवैधानिक लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती पैदा करती है।
अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार को आरोपी व्यक्तियों, सूचना देने वालों और गवाहों की जाति से जुड़े सभी कॉलम और प्रविष्टियों को हटाकर अपनी पुलिस दस्तावेजी प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने का निर्देश दिया है।
अदालत ने मौजूदा मामले में कहा, “प्राथमिकी और जब्ती मेमो में आरोपियों की जाति माली, पहाड़ी राजपूत ठाकुर, पंजाबी पाराशर और ब्राह्मण के तौर पर दर्ज करने से किसी कानूनी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होता।”
“राज्य के उच्चतम पुलिस अधिकारी की तरफ से ऐसी असंवेदनशीलता ने इस अदालत को जाति आधारित पूर्वाग्रह के व्यापक मुद्दे पर गहरी बहस छेड़ने को विवश किया। अदालत ने पाया कि प्राथमिकी के निर्धारित प्रारूप में ऐसा कोई पैरा नहीं है जहां पुलिस के लिए आरोपी और शिकायतकर्ता की जाति और धर्म का उल्लेख करना अनिवार्य हो।”
अदालत ने कहा कि इसी तरह, अपराध विवरण फॉर्म के परीक्षण पर यह पता चलता है कि जाति और धर्म के आधार पर आरोपी की पहचान के लिए कोई पैरा नहीं है।
पुलिस के रुख से असहमति व्यक्त करते हुए अदालत ने कहा, “21वीं सदी में पुलिस अब भी पहचान के लिए जाति पर निर्भर है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। खासकर तब जब बॉडी कैमरा, मोबाइल कैमरा, अंगुलियों के निशान, आधार कार्ड, मोबाइल नंबर, माता-पिता के विवरण जैसे आधुनिक टूल उपलब्ध हैं।”
अदालत ने कहा, “इसके अलावा, इन प्रारूपों में आरोपी से जुड़े व्यापक वर्णानात्मक क्षेत्र जैसे लिंग, जन्म तिथि, शरीर की लंबाई, त्वचा का रंग, पहचान के निशान, दांत, बाल, आंखें, भाषा, जले का निशान, तिल, टैटू आदि पहले से मौजूद हैं। इसलिए यह अदालत डीजीपी के तर्क से सहमत नहीं है।”
अदालत ने जाति आधारित डिजिटल प्लेटफॉर्मों का भी यह कहते हुए जिक्र किया कि इंस्टाग्राम, यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्मों पर रील ने व्यक्तियों को जाति की पहचान दी है। ये रील अक्सर जातिगत आक्रामकता और प्रभुत्व को रोमांटिक रूप देती हैं। ऐसे व्यवहार से पता चलता है कि कैसे सार्वजनिक रूप से जाति का दावा संवैधानिक नैतिकता को कमजोर करता है।
अदालत ने सरकार से यह सिफारिश की है कि सरकार सभी निजी और सार्वजनिक वाहनों पर जाति आधारित नारों और पहचान पर प्रतिबंध लगाने के लिए केंद्रीय मोटर वाहन नियम में संशोधन कर सकती है। साथ ही वह प्रदेश के आरटीओ और यातायात विभाग को सर्कुलर जारी कर जाति के साइनेज हटाने को कह सकती है।
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