नेपाल में हिंसा : गहराई से पड़ताल जरूरी
नेपाल में उथल-पुथल के बीच सुशीला कार्की ने अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाल लिया है। किंतु इसके पूर्व तीन दिनों में नेपाल जिस अकल्पनीय हिंसा, उथल-पुथल और हृदयविदारक घटनाओं से गुजरा उनने सबको डराया है।
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सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के विरु द्ध जेन जी के बैनर से जारी विरोध प्रदर्शन कितने उग्र, हिंसक, अराजक और अनेक मायनों में आपराधिक भी हुए। लगता था जैसे उग्र भीड़ नेपाल की राजनीति और सत्ता से संबंधित हर चीज नष्ट करना चाहती हो। संसद भवन, प्रधानमंत्री आवास, राष्ट्रपति आवास और उच्चतम न्यायालय जला देना, मंत्रियों, पूर्व मंत्रियों, नेताओं को उनके घरों में घुस कर, सड़कों पर दौड़ा कर पीटना और महिलाओं को भी नहीं बख्शना किसी आंदोलन का पर्याय नहीं हो सकता। पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनाल की पत्नी को जलाया गया। शेर बहादुर देउबा की पत्नी विदेश मंत्री आरजू राणा देउबा की पिटाई वाकई हृदयविदारक थी। लगता था जैसे भीड़ किसी भी नेता को नेपाल की धरती पर साक्षात सहन करने को ही तैयार नहीं थी। सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के कारण ऐसा हिंसक विरोध गले नहीं उतरता।
जरा सोचिए, 28 अगस्त को नेपाल सरकार ने 26 सोशल मीडिया साइट्स को प्रतिबंधित किया था, जिन्होंने वहां रजिस्ट्रेशन नहीं कराया था और 3 सितम्बर को आंदोलन आरंभ हो गया। ठीक है कि सोशल मीडिया नई पीढ़ी और सक्रिय लोगों के जीवन में इतनी पैठ बना चुका है कि प्रतिबंध सामान्य तौर पर स्वीकार नहीं हो सकता। नेपाल में सोशल मीडिया के माध्यम से 12 अरब डॉलर माह से ज्यादा का कारोबार हो रहा है। नई पीढ़ी रील बनाने से लेकर अन्य वीडियो आदि से भारी कमाई कर रही है। सोशल मीडिया भुगतान का भी जरिया बन गया है। सरकार का कहना था कि सोशल मीडिया के माध्यम से देश की सुरक्षा को खतरा पहुंचाया जा रहा था, सांप्रदायिक घृणा भी फैलाई जा रही थी।
इसलिए इनका नियमन जरूरी है। उच्चतम न्यायालय ने निबंधन की बात कही थी कि जिसे आधार बना कर सरकार ने प्रतिबंध ही लगा दिया था। उग्र विरोध को देखते हुए प्रतिबंध हटा लिया गया। केवल प्रतिबंध विरोध का कारण होता तो ऐसी स्थिति नहीं बनती। यह तो नहीं कह सकते कि नेपाल में असंतोष और विरोध के कारण नहीं थे। 2006 में माओवादियों के शांति समझौते के बाद 2008 में राजशाही के अंत के साथ शुरू संसदीय लोकतंत्र का प्रयोग नेपाल में अनेक विद्रूपताओं का शिकार हुआ। 17 वर्षो में 14 सरकारों के आने-जाने से बड़ा प्रमाण राजनीतिक अस्थिरता का क्या हो सकता है। ओली ने भारत विरोधी चीन के प्रति झुकाव रखने वाले अजीब किस्म के नेपाली राष्ट्रवाद को प्रचलित किया जिनसे उनके समर्थक-विरोधी, दोनों पैदा हुए।
आप देखेंगे कि काफी समय से नेपाल में अलग-अलग किस्म के आंदोलन चलते रहे हैं, जिनमें नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र घोषित करने तथा राजशाही की पूर्ण वापसी प्रमुख था। इनकी रैलियों में हजारों लोग आने लगे। ओली ने राजा ज्ञानेंद्र की गतिविधियों को रोकने की कोशिश की तथा आंदोलन में तोड़फोड़ के लिए उन पर 7 करोड़ 93 लाख का जुर्माना भी लगाया। उनकी सुरक्षा परिवर्तित कर दी गई। हाल में नेपाल में मुस्लिम तथा ईसाई समुदाय की बढ़ती आबादी के विरुद्ध भी असंतोष बढ़ा है। मुस्लिम आबादी तराई या मधेस क्षेत्र में है, और उसके कारण समाज में असहज स्थिति पैदा हुई है। इसके विरुद्ध भी छोटे-बड़े प्रदर्शन चलते रहे हैं।
नेपाल वि का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था। 2008 की संविधान सभा सह संसद ने बिना घोषणा के हिन्दू राष्ट्र का अंत कर नेपाल को सेक्युलर देश घोषित किया। इसमें बालेंद्र शाह जैसे रैपर तथा सूदन गुरुंग जैसे एनजीओ संचालकों ने नई पीढ़ी को आकर्षित किया। बालेंद्र ने कांग्रेस और कम्युनिस्ट, दोनों को पराजित कर काठमांडू के मेयर का चुनाव जीता तथा 2023 में टाइम्स पत्रिका ने उन्हें वि के 100 प्रभावशाली व्यक्तियों में शामिल कर दिया। यह नेपाल के लोगों खासकर युवाओं की बदलती प्रवृत्ति का प्रमाण था कि स्थापित नेताओं की जगह ऐसे लोगों को प्रमुखता मिली।
बेरोजगारी के कारण युवाओं का विदेश पलायन नेपाल के लिए आम बात थी। आज नेपाल के लोग दुनिया के अनेक कोनों में हैं, और वहां से प्रभावित हैं। राजनीति, सत्ता, अर्थव्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, विदेश संबंध, नेताओं की स्थिति पर गहन विमर्श करते हैं तो वहां असंतोष और विद्रोह के आधार व्यापक थे एवं लोगों में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से उभर कर नई व्यवस्था स्थापित करने का भाव होना स्वाभाविक है। किंतु कई बार हम जल्दबाजी में घटनाओं की पृष्ठभूमि, उसके पीछे की सोच तथा इसके भयावह प्रभावों का आकलन नहीं कर पाते और अराजक विद्रोह को भी न्यायसंगत ठहरा देते हैं। नेपाल अकेला देश नहीं है, जहां राजनीति भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हो।
राजनीति में परिवारवाद या नेताओं के परिवारों का संपन्न और सुख-सुविधाओं से भरे जीवन जीने की स्थिति भी अनेक देशों में है। बेरोजगारी या आर्थिक समस्याओं का सामना अनेक देश कर रहे हैं। इस तरह की स्थिति इसके पूर्व दक्षिण एशिया में श्रीलंका तथा बांग्लादेश में पैदा हुई। बांग्लादेश की घटना के पीछे अमेरिका और पाकिस्तान की प्रमुख भूमिका थी। शेख हसीना के पलायन के बाद देखा गया कि 1971 के बांग्ला मुक्ति संघर्ष से जुड़े अवशेषों को नष्ट किया गया तथा देश को इस्लामी राज की दिशा में ले जाया गया। कट्टर इस्लामाबादी उग्रवादी समूहों ने आंदोलन को आरक्षण विरोध के बहाने खड़ा किया था। श्रीलंका में भी आप देखेंगे कि राजपक्षे परिवार के शासन के अंत के बाद उसके दिवालिया हो जाने, भुखमरी आदि बातें सामने नहीं आई।
कहने का तात्पर्य इस तरह के विद्रोहों के पीछे ऐसी सोच, विचारधारा, योजना और तैयारी रही है, जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। आखिर, यह कैसा आंदोलन है कि बुजुर्ग नेताओं को पीटा जाए, महिलाओं तक को भी न छोड़ा जाए तथा संसद भवन से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में आग लगा दी जाए? आज भी स्थिति यह है कि आप ऐसे कृत्यों का विरोध करें तो आपको उग्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। इस दौरान भारत के प्रति विरोध की भी अनेक घटनाएं सामने आई। साफ है कि नेपाल के घटनाक्रम के पीछे के कारणों की गहराई से पड़ताल करनी होगी। पूरे वि में विरोधों का जैसा चरित्र दिख रहा है, उसी क्रम में ही इसे देखा जाना चाहिए।
(लेख में विचार निजी हैं)
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