मतदाता सूची : पारदर्शिता और निष्पक्षता की दरकार
लोकतंत्र का आधार चुनाव कराना ही नहीं, बल्कि चुनाव ऐसे कराना है कि इसकी निष्पक्षता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर जनता का भरोसा बना रहे।
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हाल में लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा चुनाव आयोग पर लगाए गए आरोपों ने देश की चुनावी प्रक्रिया पर बहस को नये मोड़ पर ला खड़ा किया है। यह केवल राजनीतिक विवाद नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को प्रभावित करने वाला गंभीर मसला है, जिसे न केवल राजनीतिक, बल्कि संवैधानिक और संस्थागत दृष्टि से भी परखना आवश्यक है।
राहुल ने अपने आरोपों में दावा किया है कि 2024 के आम चुनाव में बड़े पैमाने पर मतदाता सूचियों में फर्जी नाम जोड़े गए और असली मतदाताओं के नाम गलत तरीके से काटे गए। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में भी यह प्रवृत्ति देखने को मिली है। विपक्ष का आरोप है कि यह सब भारतीय जनता पार्टी को चुनावी लाभ देने के उद्देश्य से किया गया जिससे मतदाता सूची में हेरफेर कर परिणामों को प्रभावित किया जा सके। चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज करने की बजाय ‘हलफनामा’ देने को कहा है।
कर्नाटक समेत तीन राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे संबंधित मतदाताओं के नाम दें जिन पर आरोप है कि उनके नाम फर्जी तरीके से जोड़े या काटे गए हैं। आयोग का कहना है कि इन दावों की सटीक जांच के लिए तथ्यों और ठोस प्रमाण की आवश्यकता है, महज आरोप पर्याप्त नहीं। आयोग का यह रु ख जहां नियम-सम्मत प्रतीत होता है, वहीं विपक्ष के आरोपों की गंभीरता को देखते हुए इनकी जांच में तत्परता और पारदर्शिता की मांग भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण हो जाती है। विवाद केवल आंकड़ों और आरोपों का खेल नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के मूल ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के सिद्धांत से भी जुड़ा है। यदि वाकई एक मतदाता के नाम पर कई वोट दर्ज हैं, तो यह सीधे-सीधे मतदान प्रक्रिया की पवित्रता का उल्लंघन है।
मतदाता सूची का सही और अद्यतन होना चुनाव की निष्पक्षता की पहली शर्त है। राहुल और विपक्षी दलों के आरोप फर्जी नाम जोड़ने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाते हैं। उनका कहना है कि आयोग मतदाता सूची में गड़बड़ी दूर करने के लिए आवश्यक तकनीकी और प्रशासनिक उपायों को पूरी तरह लागू नहीं कर रहा है। उदाहरणत: आयोग द्वारा घर-घर जाकर मतदाता सत्यापन प्रक्रिया शुरू की गई परंतु इसमें भी पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी के आरोप लगते रहे हैं। कई बार फील्ड अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव की आशंका जताई जाती है, जिससे गलत नाम सूची में बने रहते हैं, और सही नाम हटा दिए जाते हैं।
चुनावी पारदर्शिता पर चर्चा करते समय तकनीकी पहलुओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। विपक्षी दलों का आरोप है कि आयोग चुनाव प्रक्रिया की निगरानी में पारदर्शिता नहीं बरत रहा। जैसे कि मतदान के बाद वीवीपैट पर्चियों की गिनती सीमित प्रतिशत में करना, सीसीटीवी फुटेज सुरक्षित नहीं रखना और मतदान केंद्रों से ईवीएम की आवाजाही के दौरान पर्याप्त सुरक्षा उपायों का अभाव। ये सभी ऐसे बिंदु हैं, जो जनता के मन में शंका पैदा करते हैं। चुनाव परिणाम की विश्वसनीयता पर भी असर डालते हैं।
उल्लेखनीय है कि आयोग द्वारा मतदाता सूची संबंधी डेटा को ऐसे प्रारूप में जारी नहीं किया जाता जो आसानी से विश्लेषण के लिए उपयुक्त हो। इसके कारण राजनीतिक दलों और नागरिक संगठनों को जांच-पड़ताल में कठिनाई होती है। यदि डेटा पारदर्शी और उपयोगी प्रारूप में उपलब्ध हो, तो स्वतंत्र संस्थाएं और मीडिया भी चुनावी प्रक्रिया पर निगरानी रख सकते हैं, और गड़बड़ी पकड़ने में मदद कर सकते हैं। इस पूरे विवाद का सबसे संवेदनशील पहलू है संस्थागत विश्वास का क्षरण। चुनाव आयोग जैसी संस्था का भरोसा केवल उसकी संवैधानिक वैधता पर नहीं, बल्कि उसकी निष्पक्षता और पारदर्शिता पर टिका होता है। यदि जनता का विश्वास इससे उठने लगे तो लोकतंत्र की नींव ही हिल सकती है। यही कारण है कि राहुल के आरोपों को राजनीतिक बयानबाजी मान कर टालना पर्याप्त नहीं, बल्कि इनकी निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच होना आवश्यक है।
इस मुद्दे का समाधान राजनीतिक बहस से नहीं, बल्कि ठोस प्रशासनिक और कानूनी कदमों से ही संभव है। चुनाव आयोग को चाहिए कि मतदाता सूचियों का र्थड-पार्टी ऑडिट कराए, तकनीकी साधनों से डुप्लीकेट और फर्जी नामों की पहचान करे, और परिणामों को सार्वजनिक करे। मतदाता सत्यापन प्रक्रिया में जनता की भागीदारी भी बढ़ाई जाए। वीवीपैट गिनती के दायरे को बढ़ाना, सीसीटीवी फुटेज सुरक्षित रखना और ईवीएम की सुरक्षा को और मजबूत बनाना भी जरूरी है। लोकतंत्र की आत्मा तभी सुरक्षित रह सकती है, जब जनता का चुनाव प्रक्रिया में विश्वास रहे।
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